रविवार, 15 अगस्त 2010

बाऊजी : एक स्वयंनिर्मित व्यक्तित्व
( श्री  अचल  दासजी  बोहरा )  


आज मेरे बाऊजी ( दादाजी ) की पैंतीसवीं पुण्यतिथि है. लेकिन वे आज भी हम सब के बहुत करीब है. उनकी यादें आज भी हम सब के जहन में ताजा है. आज भी वे हमारे परिवार के प्रेरणास्त्रोत बने हुए हैं. आज हमारा परिवार जहाँ है वो उनके त्याग और योगदान की वजह से ही है.
मेरे दादाजी यानी कि बाऊजी, एक स्वयं निर्मित व्यक्ति थे. आज उनकी पैंतीसवीं पुण्यतिथि है. जब मैं उन्हें याद करता हूँ , उनके बारे में सोचता हूँ तो मुझे खुद पर फक्र महसूस होता है कि मैं उनके परिवार से हूँ. उन्होंने अपने जीवन में जितना संघर्ष किया वो अतुलनीय है. उनके पिता यानि कि मेरे परदादा भजन-कीर्तन में व्यस्त रहते थे. कोई काम उनके पास नहीं था. उस वक्त हमारा परिवार एक बहुत ही साधारण श्रेणी का था. जब मेरे बाऊजी दो साल के थे तो उनकी माँ स्वर्गवासी हो गई. बाऊजी को उनके अन्य रिश्तेदारों  ने पालना पोसना आरम्भ किया. बाऊजी अत्यंत ही मेधावी छात्र थे. उन्हें पांचवीं कक्षा से वजीफा यानि कि स्कोलरशिप मिलनी शुरू हो गई. उन दिनों जोधपुर नरेश की तरफ से ये वजीफे मिला करते थे. जब बाऊजी सातवीं कक्षा में आए तो उन्होंने पांचवीं तक के कुछ छात्रों को पढाना शुरू किया जिससे कि कुछ अतिरिक्त आय हो सके. इसी तरह बाऊजी ने दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की. इसके बाद आगे की शिक्षा उन्होंने बीकानेर से की. उन दिनों इंटर परीक्षा होती थी. इंटर उत्तीर्ण करने के बाद बाऊजी बीकानेर में ही एक स्कूल में अध्यापक लग गए. उन्हें बचपन से जो पढ़ाने का शौक पैदा हुआ था वो अब पूरी तरह से परवान चढ़ चुका था. इसी दौरां वे वोलिबोल के एक अच्छ एखिलादी बन गए थे. वे नेट पर ही खेला करते थे.  दो साल के बाद बाऊजी के एक रिश्तेदार ने उन्हें रेलवे में तार बाबू की भर्ती की बात बताई. बाऊजी को ये बात जाँच गई और वे तार बाबु की ट्रेनिंग में लग गए. जल्दी ही वे रेलवे में नियुक्त हो गए.


















धीरे धीरे समय गुजरता चला गया और बाऊजी तरक्की पर तरक्की करते चले गए. बाऊजी अपने कार्यकाल में भदवासी, रामसर, उदयसर, मुनाबाओ और अंत में पचपदरा साल्ट डेपो में रहे. १९६3 में उनकी पदोन्नति स्टेशन मास्टर के पद पर हुई और वे पचपदरा साल्ट डेपो चले गए. बाऊजी बहुत ही अनुशासन प्रिय थे. पचपदरा साल्ट डेपो में उनके आठ साल के कार्यकाल में कोई भी छोटी दुर्घटना तक नहीं हुई और इसीलिए उन्हें रेलवे ने सम्मानित किया था. 
उन दिनों पापा बी कॉम में पढ़ रहे थे. १९६४ में पापा का विवाह हो गया. छोटी उम्र में  विवाह हुआ था इसलिए मेरी दादी ( बा )  को बाऊजी ने जोधपुर रहने के लिए भेज दिया जिससे कि पापा के अध्ययन में कोई अड़चन ना आए. ये बाऊजी के एक बहुत बड़ा त्याग था. वे करीब करीब अकेले ही रहे और पापा की पढ़ाई आगे बढती चली गई. १९६७ में पापा जोधपुर पुष्करणा समाज में पहले चार्टर्ड अकाऊंटेंट बन गए. आज मैं केवल ये अंदाजा लगा सकता हूँ कि उस वक्त बाऊजी को कितनी ख़ुशी हुई होगी. उनका त्याग रंग लाया था और पापा की मेहनत.
बाऊजी मितव्ययता के सिद्धांत पर चलते थे. उनका यह मानना था कि महंगाई और बढ़ते खर्च पर इंसान चाहे तो खुद ही काबू पा सकता है. उसे अपने खर्चे अपने बस में रखने चाहिये. जितनी न्यूनतम आवश्यकता हो उतना ही खर्च करे तो महंगाई भी कुछ नहीं बिगाड़ सकती. मैंने उनके पास कभी भी पांच जोड़ी से ज्यादा कपडे नहीं देखे. लेकिन जब वे बाहर निकलते तो कोई ये अंदाज़ा नहीं लगा सकता था कि इस व्यक्ति के पास केवल पांच जोड़ी कपडे ही हैं.

बाऊजी श्रीकृष्ण के ग्वाल रूप को बहुत मानते थे और उसी के ऊपर लिखे गए भजन गुनगुनाते थे. गंगश्यामजी  के मंदिर वे जब भी जोधपुर में होते तो नियमित रूप से जाते. मैंने हालाँकि केवल ग्यारह साल की उम्र में ही उन्हें खो दिया लेकिन उन्होंने मुझे बहुत कुछ सिखाया. परिवार के मुखिया को क्या क्या त्याग करने चाहिये? मुखिया के क्या क्या फ़र्ज़ होते हैं? उसे कितना सहन करना चाहिये? और भी ना जाने कितनी ही शिक्षाएं वे देते रहते थे. आज जब हम समाज में एक ही घर के लोगों में बढती दूरीयों को देखता हूँ तो मुझे बाऊजी बहुत याद आते हैं. उनकी सीख बहुत याद आती है. उनके सिद्धांत बहुत याद आते हैं.
बाऊजी को अपने इकलौते पुत्र यानि कि हमारे पापा पर बहुत गर्व था. जब लोग उन्हें कहते कि आपका बेटा समाज का पहला सी ए बना है तो उन्हें अन्दर तक ख़ुशी महसूस होती और चेहरे पर एक हलकी सी मुस्कान दौड़ जाती. उनका स्वभाव बहुत ही शांत था. वे बहुत कम बोलते थे. वे गांधीजी के उस वाक्य को अमृत-वाक्य मानते थे जिसमे गांधीजी ने कहा था कि " बहुत कम बोलो. अगर एक शब्द से काम चल सकता है तो दो भी नहीं." आज ऐसी बात कोई नहीं सोचता.
मैंने उनके साथ जो कुल मिलकर पचपदरा में सात साल बिताये जो शायद मेरा स्वर्णिम समय था. जो शिक्षा उन्होंने मुझे दी वो मेरे लिए एक धरोहर से कम नहीं है. बाऊजी नियमित रूप से योगासन करते थे. रिटायरमेंट के बद में आखिर तक उनका शरीर एकदम फिट था.
हमारे बाऊजी हमारे प्रेरणास्त्रोत बने रहेंगे. उह्नें हम सभी परिवारवालों का शत-शत नमन. बाऊजी हर जनम हम आपके ही परिवार में जनम लेंगे और अपने जीवन को धन्य बनायेंगे. 

सोमवार, 10 मई 2010

यादों का झरोखा - भाग १ 

घटनाकाल - जुलाई १९८१
स्थान - जोधपुर ( राजस्थान ) मेरी जन्म-भूमि

उस वक्त मैं  लाचु कॉलेज में बी एस सी प्रथम वर्ष में था और अपनी बुवा के यहाँ रह रहा था जो कि मेरे पैतृक मकान से दूर था. मेरी दादी के अचानक देहांत के बाद मैं वहां रहने चला गया था. मेरे पापा उन दिनों मुंबई थे. जुलाई का महीना था. हमारा  शहर जोधपुर गर्मी से झुलस रहा था. इस गर्मी के समय में एक शीतलता का अहसास हुआ जब मेरे एक दोस्त ने मुझे अपने मामा के लड़के की शादी का निमंत्रण देते हुए कहा कि दो दिन बाद ही शादी है और मुझे हर हाल में शामिल होना है. 
शादी का नाम सुनते ही मेरे मुंह में पानी आ गया. सोचा चलो अच्छा है शादी के खाने में ढेर सारे पकवान खाने के लिए मिलेंगे. उन दिनों मेरी उम्र  सत्रह साल की थी इसलिए केवल शादी की दावत से ही मुंह में पानी आ गया. 

नियत समय पर बरात में शामिल हो गया. बरात चल पड़ी. चलते चलते बरात मेरे ही मोहल्ले में पहुँच गई. मैं थोडा चौंका. लेकिन मेरे दोस्त ने बताया  वहां की स्कूल लड़की वालों ने विवाह के लिए किराये पर ले रखी है.  इसलिए मुझे ज्यादा पता नहीं चला. लेकिन जब मैंने दुल्हन को देखा तो मेरे होश उड़ गए. वो मेरी ही गली में रहनेवाली एक लड़की थी. हमारे घर के उस घर के साथ बहुत घरेलु सम्बन्ध रहे थे शुरू से ही और मैं उसे बहन के सामान मानता था.  अब मुझे अपने आप पर कुछ अजीब तरह से गुस्सा आ गया कि  एक तरह से वो मेरी बहन है और मैं उसी के घर में बाराती बनकर आ गया हूँ. मैंने यह बात जब मेरे दोस्त को बताई तो उसने एक शरारत भरी नजर मुझ पर डाली और बोला " अब होश क्यूँ उड़ गए बाराती महोदय ! तब तो तू बड़ा ही जोश में था कि जबरदस्त खाना खायेंगे. अब क्या हो गया! अब तू एक काम कर लडकी वालों में जाकर मिल जा और हम सब की अच्छी तरह से आवभगत कर." उसके इन आखिरी शब्दों को सुनकर मुझे कुछ सुझा और मैं तुरंत उस लडकी के पिता, जिन्हें मैं ताउजी कहता था, मिला. वे मुझे देखकर बहुत खुश हुए.  इसके बाद मैंने लडकी वालों की तरफ से बारातियों  की आवभगत की. बाद में मैं अपने दोस्तों के साथ शामिल हुआ और खाना खाया. लेकिन रह रहकर मुझे अपने किये पर अफ़सोस होता रहा. मेरे अन्य दोस्त मुझे काफी देर तक चिढाते रहे और मैं शरमाते हुए चुपचाप खाना खाता रहा.
आज भी जब मुझे वह घटना याद आती है तो हंसी आ जाती है कि कैसे मैं निमंत्रण मिलते ही खुश हुआ था और लडकी को देखते ही किस तरह होश उड़ गए थे. हम दोनों दोस्त आज भी एक दुसरे के संपर्क में है और कई बार इस घटना को याद कर मुस्कुराकर रह जाते हैं.
यही तो जिंदगी है जो हम हमारे यादों के झरोखों से अक्सर देखा करते हैं.
लेकिन अफसोस ये है कि अब पहले जैसा ज़माना नहीं रहा और यही कारण है कि पुरानी बातें ज़िन्दगी के ज्यादा करीब लगी हुई महसूस होती है. काश इस तरह का वक्त हमेशा रहा पाता. लेकिन हकीकत को स्वीकारना पड़ता है और वर्तमान में ही जीना पड़ता है.

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रविवार, 2 मई 2010


बा : एक श्रद्धांजलि
( श्रीमती सीता देवी बोहरा )
स्वर्गारोहण  : ३ मई १९८१ 

खुद को भुला सकता हूँ पर आपको भुला सकता नहीं
एक पल भी आपकी याद के बिना मैं रह सकता नहीं

हमारी बा को हमसे दूर हुए आज पूरे उन्नतीस वर्ष हो रहे हैं. बा आज भी हमारे परिवार के साथ है. हमारे दिलों में समाई हुई है. वो आज भी हमें उसी तरह राह दिखलाती है जिस तरह वो हमें पहले दिखलाती थी. उनका वो निस्वार्थ प्रेम आज भी भुलाये नहीं भूलता. वो हरेक के लिए दिल में दर्द और मदद की चाह हमें आज भी रह रहकर याद आती है. हमारा परिवार आज भी जोधपुर में हमारे तमाम रिश्तेदारों और अन्य पहचान वालों में उनके नाम से ही जाना जाता है. उन्होंने हमें सभी से प्रेम के साथ रहना सिखाया और यह भी शिक्षा दी कि बुरा वक्त हर किसी की जिंदगी में आता है और एक सच्चा इंसान वो ही होता है जो किसी की संकट की घड़ी में मदद करे और उसके साथ खड़ा रहे.
बा श्री कृष्ण भगवान के बालकृष्ण रूप की नियमित पूजा करती थी. श्रीमद भगवत कथा वो लगभग पूरे वर्ष पढ़ती थी. उन्होंने अपना पूरा जीवन हमारे परिवार को बनाने और अन्य परिवारों के मध्य एक उदहारण बनाने में लगा दिया. हमारे पापा जोधपुर में हमारी पुष्करणा ब्राह्मण जाति में पहले चार्टर्ड  अकाऊंटेंट  बने थे. पापा की अथक मेहनत के साथ बा का त्याग और प्रेम भी उसी तरह से जुड़ा हुआ था. हमारे परिवार की वो एक ऐसी प्रेरणा स्त्रोत थी कि उनकी कमी हमें आज भी महसूस होती है.  
मेरी बा ( मेरी दादी माँ ) मेरा सब कुछ थी. मेरा वजूद उन्ही से था. जिस दिन बा ने यह दुनिया छोड़ी मेरे लिए सब कुछ ख़त्म सा हो गया. कुछ दिनों के लिए मेरे लिए जैसे वक़्त रुक गया था. उस वक्त  मैं मात्र सत्रह वर्ष का था. मैं ये तय नहीं कर पा रहा था कि अब मैं क्या करूंगा ? मैं कैसे जीयूँगा? मेरी ज़िन्दगी किस तरह आगे बढ़ेगी? मेरे उस वक्त तक के जीवन पर बा का इतना गहरा प्रभाव था कि मैं अपने आप कुछ नहीं करता था. मेरे हर कदम पर बा का प्रभाव रहता था. आज बा को गए हुए उनतीस बर्ष हो चुके हैं लेकिन मैं आज भी बा की कमी उतनी ही महसूस करता हूँ जितनी मैंने बा के स्वर्गारोहण के दिन महसूस की थी. मैं आज भी उन्हें अपने साथ पाता हूँ . उनकी उपस्थिति महसूस करता हूँ. कोई माने या ना माने लेकिन जब भी मैं अपने जोधपुर के पैतृक मकान में जाता हूँ  मुझे ना जाने क्यूँ ऐसा लगता है कि मुझे उनकी पदचाप सुनाई दे रही है. वो धीरे से कुछ कह रही है लेकिन शायद मैं सुन नहीं पा रहा हूँ. जब भी मैं जोधपुर जाता हूँ और उस मकान में प्रविष्ट होता हूँ मुझे अनायास ही मेरी आँखों में ना जाने कहाँ से आंसू आ जाते हैं और ऐसा लगने लगता है कि जैसे बा को गए हुए ज्यादा वक्त नहीं हुआ है, मैं शायद उनकी कमी महसूस कर रहा हूँ  और ..........
बा एक निस्वार्थ प्रेम से ओतप्रोत महिला थी. वो बहुत ही निडर थी और स्पष्टवादिता में विश्वास रखती थी. वो हर किसी को अपने घर का सदस्य समझ कर उसकी मदद करती. जोधपुर में जिस गली में हमारा घर है , उस गली में स्थित हर घर का प्रत्येक सदस्य बा से उम्र के हिसाब से अलग अलग रिश्ते से बंधा हुआ था. कोई बा को बुवा कहता तो कोई मौसी . कोई भोजी कहता तो कोई बहन. बा के दिल में सभी के लिए सामान रूप से प्रेम था , दर्द था और दया भी थी. हमारी उस गली में हर घर में बा का एक अलग ही प्रभाव था. किसी भी घर में कोई छोटी सी कहासुनी भी हो जाती तो बा की जरुरत उन्हें महसूस होती और बा के समझाने से सब कुछ सामान्य हो जाता. बा बिना किसी लाग लपेट के हर किसी को जो भी गलत हो रहा है वो साफ़ साफ शब्दों में कह देती और अपनी राय भी दे देती जिससे कि हर समस्या सुलझा जाए.
मुझे आज भी इस बात का दुख है कि जिस वक्त मुझे बा की सबसे अधिक आवश्यकता थी उसी वक्त भगवान ने उन्हें मुझसे छीन  लिया. मैं आज जहां हूँ  मैं शायद इस से कई कदम आगे होता अगर बा का साथ और मार्गदर्शन कुछ समय और मिला होता. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. मैं आज यह स्वीकार करता हूँ कि मेरा असली रूप ; मेरी वास्तविक खूबीयां बा के जाने के साथ ही ख़त्म हो गई और एक अधुरा व्यक्तित्व पैदा हुआ जो शायद आज तक अधुरा ही है.
बा में जो मैंने प्रेम-भाव देखा जैसा बहुत ही कम लोगों में देखने को मिलता है. हम तीनों भाइयों को बा ने बहुत स्नेह दिया जो कि हर दादी अपने पौत्रों को देती है. लेकिन बा के प्रेम में जो ममत्व था उसकी बात ही कुछ और थी. प्रेम के साथ साथ शिक्षा और अनुशासन , सब कुछ  बराबर हिस्सों में मिलता था. बा ने हमारे परिवार में एक परंपरा शुरू की - वो यह कि बहु एक बेटी से भी बढ़कर होती है. अपना भरा-पूरा परिवार छोड़कर आती है और अपना सारा जीवन इस नए घर को बसाने और संवारने में  लगा देती है. हमारे परिवार में आज भी यह परंपरा कायम है और हमेशा रहेगी.
मैं जब जब बा के साथ होता था तब तब मुझे ऐसा लगता था जैसे मेरा हौसला बहुत बढ़ा हुआ है . जब मैं कुछ बड़ा हो गया तो मेरे दोनों छोटे भाइयों को बा अपने बिस्तर पर दायें-बाएं सुलाती और मुझे कहती कि अब तू बड़ा हो गया है इन्हें मेरे पास सोने दे. बा ने मुझे यह अहसास बहुत जल्दी दिला दिया और बहुत छोटी उम्र में दिला दिया कि मैं अब बड़ा हो रहा हूँ और मुझे अपने कर्तव्यों का अहसास अभी से हो जाना चाहिये. बा के असामयिक स्वर्गारोहण ने कुछ अरसे तक मेरी ज़िन्दगी में एक ठहराव और उलझाव ला दिया था लेकिन जब मैंने उस समय को पार किया तब मुझे अचानक ही यह अहसास होने लग गया था कि अब मुझे अपने आप को बहुत बदलना है. मुझे याद है इस असहनीय घटना के तीन-चार साल के बाद मैं अपनी उम्र से बहुत बड़ा हो गया था और मेरी सोच और मेरे विचार एकदम बदल गए थे. उस दौरान मैंने बहुत कुछ खोया लेकिन खुद को बदलने में जो कामयाबी मिली वो ही शायद सबसे बड़ी उपलब्धि थी.
बा के साथ मैंने १९७९ से १९८१ के बीच जो वक्त गुजारा उस वक्त में बा ने मुझे बहुत ज्ञान दिया. एक परिवार में बड़े बेटे / भाई का क्या कर्त्तव्य होता है  ये सब बताया. पूरे परिवार को कैसे एक रखा जाता है . कैसे समस्याओं को सुलझाया जाता है . कैसे त्याग किया जाता  है. कैसे समय समय पर खुद को भुलाकर सभी को याद रखा जाता है. उन्होंने ही मुझे हमेशा खुश रहने का  यह मन्त्र दिया कि अगर हमें हमेशा खुश रहना है तो हमें सभी को खुश रखना चाहिये. सभी के हँसते खिलते चेहरे देखने से ही हमें खुशीयाँ मिलेगी और हम हमेशा खुश रहेंगे और हमें हमारा दुःख कभी नज़र ही नहीं आयेगा. खुद के ग़मों को भुलाने का यही एकमात्र और सफल उपाय है. जिस दिल ने सभी को इतना प्यार दिया उस दिल ने ३ मई १९८१ के दिन धडकना बंद कर दिया. एक अध्याय जैसे समात्प हो गया लेकिन बा की प्रेम पताका हमारा परिवार आज भी संभाले हुए हैं और आनेवाली पीढीयाँ भी इसी तरह संभाले रहेगी.

इश्क ही इबादत है खुदा की  बस इश्क ही इश्क कीजै 
नाशाद ता-उम्र बस इश्क ही लीजै  और इश्क ही दीजै 

मैंने उन्हें श्रद्धांजलि स्वरुप एक कविता लिखी है . जो उन्हें समर्पित कर रहा हूँ .

          बा 

बा, मुझे अब भी आपकी याद बहुत आती है
वो कभी हंसाती है  तो कभी रुलाती है
अक्सर जागता हूँ रातों को 
वो मुझे आकर सुलाती है 

जब भी आँखों में आते हैं आंसू 
वो आकर उन्हें पौंछ जाती है
जब भी दिल नहीं लगता है मेरा
वो पुरानी बातों से दिल बहलाती है



जब भी पाता हूँ खुद को किसी चौराहे पर 
वो आकर मुझे राह दिखलाती है
जब टूट जाता हूँ टुकड़े टुकड़े होकर 
वो मुझे मेरे वचन याद दिलाती है

जब भी पाता हूँ अपने जिस्म से जान जुदा 
वो मुझे जिंदा होने का अहसास दिलाती है
दूर नहीं हूँ मैं तुमसे, हर वक्त हूँ तुम्ही में समाई
यह बात हर वक्त वो मुझसे कह जाती है

सब को खुश रखकर खुश रहना है
आपकी इस सीख को अक्सर याद दिलाती है
बहुत दूर तक अभी चलना है 
वो हर वक्त मुझे यह अहसास दिलाती है 

आपकी भक्ति आपकी शक्ति आपकी स्फूर्ति
मुझे रह रहकर याद आती है
किस तरह त्याग से यह घर बसाया
यह बात मुझे आश्चर्यचकित  कर जाती है

बा, मुझे अब भी आपकी याद बहुत आती है
कभी हंसाती तो कभी रुलाती है

बा के प्रेम-सूत्र में बंधा हमारा परिवार ( १९७२ )




( पहली पंक्ति = बाएं से -  हमारे पापा , हमारी मम्मी 
  दूसरी पंक्ति = बाएं से - मेरा छोटा भाई धर्मेश ; हमारे बाऊजी {दादाजी}, 
                               मैं , बा और मेरा सबसे छोटा भाई राजेश  

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

इल्म नहीं था इतनी जल्दी खत्म फसाने हो जायेंगे
आप यूँ   अचानक चल  दोगे  हम देखते  रह जायेंगे 




८ सितम्बर के दिन जब शाम को पापा हमें अचनाक हमेशा हमेशा के लिए छोड़कर चले गए तो दिल रुक गया. दिमाग सुन्न हो गया. जो भी था सब वहीं रुक गया. हमने कभी कल्पना नहीं की थी कि यह दिन हमारी ज़िंदगी में इतनी ज़ल्दी आ जाएगा. एक विशाल बरगद से भी कहिनाधिका घना साया जो आज ताका हमारे ऊपर रहता आया था इसा तरह से अचनाक उठ जाएगा. उस दिन शायद भगवान ने भी हमें धोखा दे दिया. अब भगवान की शिकायत किस से करें. उस दिन भगवान ने हमारी सारी प्रार्थनाएं अनसुनी करा दी और हमारे पापा को हमसे छीन लिया. उसके इस फैसले को हमें स्वीकारना पड़ा. इसके सिवा हमारे पास कोई  और  चारा भी तो नहीं था.
जिनके बिना हमारी अब  तक की ज़िन्दगी का एक भी दिन नहीं बीता था अब उनके बिना हमें सारी ज़िन्दगी बितानी है.


कर्मयोगी - हमारे पापा एक सच्चे कर्मयोगी थे. उन्होंने कभी फल की कामना नहीं की. कर्म को ही अपना जीवन माना. उनहोंने कभी किसी से कोई उम्मीद नहीं रखी. वो हमेशा यह कहते थे कि यह कलियुग है. अगर कोई अपने साथ आकर खड़ा हो जाये तो यही उसका योगदान बहुत बड़ा होगा. किसी से कोई उम्मीद मत बांधो. अपने कर्म किये जाओ और अपनी काबलियत  पर भरोसा रखो. अगर हम में काबलियत है और कर दिखाने की हिम्मत है तो केवल भगवान पर भरोसा रखो. तुम्हारा कभी बुरा नहीं होगा.  वो हमेशा कहते थे कि कोई अगर कभी  धोखा दे दे तो दुःख मत करो क्यूंकि  कलियुग में सब संभव है. कोई भी कभी धोखा दे सकता है. हमेशा दूसरा रास्ता तैयार रखो. कभी भी किसी पर पूरी तरह से आश्रित मत रहो.   जो जितना साथ दे दे उसी को अपनी खुशनसीबी समझो. अपनी तरफ से हर किसी का भला करते रहो तो तुम्हारा कभी कोई बुरा नहीं कर सकेगा. उन्होंने कभी किसी से के पास जाकर कोई काम नहीं माँगा. वो जो भी कुछ अपनी ज़िंदगी में बने केवल अपने बल बूते पर बने. अपने परिवार में  किसी और को संघर्ष ना करना पड़े इसलिए उन्होंने नौकरी छोड़कर प्रेक्टिस आरम्भ की और एक सफल सी ए की फ़र्म खडी कर दी.
वे सभी से निस्वार्थ प्रेम करते थे. अपने हर रिश्तेदार के लिए उनके दिल में बहुत प्यार और स्नेह था. सभी लगातार संपर्क बनाये रखने में उनका कोई सानी नहीं है. हर रविवार को सवेरे सात बजे से नौ बजे तक वो लगभग अपने हर मित्र और रिश्तेदार से तमाम जानकारीयाँ ले लेते और सारी जानकारीयाँ दे देते. वे हमेशा हम से कहते थे कि मैंने जो संपर्क-सूत्र बनाए हैं तुम केवल उसे अपनाए रखना. तुम्हे कभी कोई कमी महसूस नहीं होगी. आने वाला समय बहुत खराब आनेवाला है. जिस तरह से पुराने लोग रिश्तेदार और मित्र रिश्तों की गहराईयों को समझते हैं और निभाते हैं; आनेवाली पीढ़ी इस तरह से नहीं निभा सकेगी. जो रिश्ते बरसों पुराने हैं वे ही बरसों तक निभेंगे. 
कोई उनके लिए क्या कर रहा है वे इसकी चिंता या परवाह कभी नहीं करते थे और उसके लिए जो बन सके वो करते रहते थे.

सिद्धांतवादी - हमारे पापा अपने सिद्धांतों को कड़ाई से अपनाते थे. उनका यह मानना था कि अगर कोई समय समय पर हालातों से समझौता करते हुए अपने सिद्धांतों को बदल दे तो फिर कोई सिद्धांत बनाए ही क्यों. कुछ सिद्धांत ऐसे होने चाहिये जिस पर इंसान सारी उमर  कायम रहे. अपने सिद्धांतों पर समझौता उन्हें मंज़ूर नहीं था. वो कई बार छोटी से छोटी बात पर यह कह देते कि " बात कितनी छोटी है या कितनी बड़ी, यह मायने नहीं रखती. बात सिद्धांत की होनी चाहिये. ऐसे कई वाकये हुए जब पापा अपने सिद्धांतों पर चट्टान की तरह डटे रहे और कोई समझौता ना करते हुए सफलता प्राप्त की.

आज हमें उनकी बहुत कमी खलती है. हम सब की जिंदगी अधूरी महसूस होती है. हम उनकी उपस्थिति हर वक्त घर में महसूस करते हैं. हम खुशनसीब है की हम उनके पुत्र बनकर इस दुनिया में आये.भगवान् हर जनम हमें इन्हें ही हमारे  माता - पिता बनाये.

नरेश धर्मेश राजेश बोहरा